Thursday, July 9, 2015

वाटर की बात

दीपा मेहता की फ़िल्म 'वाटर' न सिर्फ कला फ़िल्म का बेहतरीन उदाहरण है बल्कि यह पुरज़ोर तरीक़े से समाज के उन पहलुओं की ओर ध्यान आकर्षित करती है जिन पहलुओं की ओर हमारा ध्यान बहुत मुश्किल से जाता है।
वाटर में बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज से आज़ादी से पहले की विधवाओं की स्थिति को दिखाया गया है कि किस प्रकार उन्हें सादा से भी सादा जीवन जीने को मजबूर किया जाता था। फ़िल्म में इस पहलू की ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि बूढी और ओहदेदार विधवा कैसे जवान विधवा के जिस्मों से धन का व्यापार करती है और जब वही विधवा विवाह की कल्पना करती है तो उसे माया और मोह के बारे मे वही बताती है जो उसे रात के अन्धेरे मे सेठों के पास भेजती थी।
दीपा मेहता ने शरीफ़ो की शराफ़त का भी भान्डाफ़ोड़ किया है कि दिन मे तो शरीफ़ होते है और रात मे...
इसी के साथ फ़िल्म में इस बात की ओर भी संकेत है कि अज्ञानता आज भी कितना बड़ा अभिशाप है। फ़िल्म में एक और बहुत ही ख़ास चीज़ को दिखाया गया है जो गाँधीजी की विचारधारा है जो सबको साथ लेकर चलना चाहती है। इन सबके साथ फ़िल्म यही बात कहती है कि आज भी महिलाओं की हालत क्या बहुत अच्छी है।
फ़िल्म की कहानी है आज़ादी के पहले की और फ़िल्म सामने आती है 2005 में जो साफ़तौर पर संदेश देती है कि महिलाओँ की स्थिति मे जितना सुधार हुआ है उससे और ज़्यादा होना चाहिए।