Sunday, March 5, 2017

दिखावा और सुन्दरता

दर्शन शास्त्र जिसे अंग्रेज़ी में फ़िलाॅस्फ़ी कहा जाता है। यह एक ऐसा विषय है जो तजुर्बो पर आधारित होता है। बड़े-बड़े विचारकों ने जो भी अनुभव किया उसे अपने-अपने हिसाब से समाज को अर्पित कर दिया। फ़िलाॅस्फ़ी मात्र एक विषय नहीं बल्कि यह बहुत से विषयों का एक बहुत बड़ा जाल है। ऐसे ही तमाम विषयों में से एक प्रमुख विषय का नाम साहित्य है। साहित्यकार साहित्य के माध्यम से ही जीवन के तजुर्बो को गद्य और पद्य के ज़रिए समाज के सामने पेश करने के महत्वपूर्ण काम को बहुत सुन्दरता के साथ अंजाम देते है एंव समाज को समाज से परिचित करवाते है। ऐसे ही एक फ़लसफ़ी शायर का नाम 'जाॅन एलिया' है जिनकी शायरी की सबस उम्दा अदा यह है कि उनके कहे अशार सुन्ने और पढ़ने में तो बहुत आसान से लगते है लेकिन जब व्यक्ति अशार की गहराई में जाता है तो उसकी हक़ीक़त मन को हिलाकर रखने के साथ विवश करती है यह सोचने पर कि क्या ऐसा भी हो सकता है। जाॅन के द्वारा रचित ऐसी ही रचनात्मक चार पंक्तियों के सौन्दर्यबोध पर बात की जाएगी।

"जो रानाई निगाहों के लिए सामान-ऐ-जलवा है।
लिबास-ऐ-मुफ़्लिसी में कितनी बेक़ीमत नज़र आती॥

यदि बात जाॅन की कही पहली दो पंक्तियों पर की जाए तो यह समाज से यह कह रही है कि जो दिख रहा है वह वास्तविक नहीं है और जो वास्तविक है वह दिख नहीं रहा क्योंकि आज के समाज को तो जैसे दिखावे की आदत सी पड़ गई है। यह कहना कहीं पर से भी ग़लत न होगा कि मनुष्य को  वही चीज़े प्रभावित करती जो उसे प्रिय होती है। जैसे अच्छा व्यक्ति ईमानदारी और सत्य से प्रभावित होगा तो वही लोभी व्यक्ति चमक-धमक से क्योंकि दिखावे को हर व्यक्ति का स्वाद पता होता है। दिखावा अपने इसी ज्ञान का फ़ायदा उठाता है और किसी न किसी भेस में आकर सदैव मनुष्य को ठगने के लिए बेताब रहता है। इसी दिखावे का एक बेहतरीन उदाहरण शक्तिमान सीरियल का पात्र 'कुमार रंजन' और फ़िल्म 'कुरुक्षेत्र' का निगेटिव पात्र 'शम्भा जी' है जो सत्य और ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर आते है और अपने मक़सद को अंजाम देते है क्योंकि एसीपी. पृथ्वीराज सिंह जैसे लोग लालच मे नही आने वाले होते है। इसके अतिरिक्त कुमार रंजन जिसका दूसरा रूप साहब का होता है और साहब के ही रूप में वह लालच दिखाकर बुरे लोगो को अपने साथ मिलाता है क्योंकि उसे पता होता है कि कैसे लोग किस तरह और कौन से रूप से प्रभावित होते है। ऐसे लोगो का सिर्फ़ एक ही लक्ष्य होता है कि हर हाल में उनका स्वार्थ पूरा हो चाहे इसके लिए उन्हें कोई सा भी भेस लेना पड़े और कुछ भी करना पड़े। हक़ीक़त में ऐसे लोगो का तो  कोई व्यक्तित्व होता ही नहीं है। भले ही वह अपने आप में कितने ही महान, चालाक आदि क्यों न बने और इन जैसी प्रवत्ती के लोग उस झूठ के समान होते है जो सोसायटी के सामने हमेशा सच के लिबास मे आते है और अपनी प्रेजेन्टेशन को ऐसे पेश करता है जैसे वही अन्तिम सत्य है। जाॅन की ख़ासियत यहाँ पर यह रही कि उन्होंने मात्र दो पंक्तियों में कितनी आसानी से ऐसे दिखावे के विषय में बहुत ही रचनात्मक तरीक़े से बता दिया दिया कि रानाई यानी रंगीनियाँ कैसी होती है और जब वह अपने असली रूप में सामने आती है तो कैसी लगती है दोनो में फ़र्क़ हो जाता है।

यहाँ तो जाज़ेबियत भी है दौलत ही की परवर्दा।
ये लड़की फ़ाक़ाकष होती तो बदसूरत नज़र आती॥

इसी रचनात्मकता के साथ जाॅन ने दूसरी पंक्ति भी कही जो सुन्दरता के वास्तविक रूप को बता रही है कि जिसे लोग सुन्दर समझ रहे है वह तो वास्तव में सुन्दर है ही नहीं और जो हक़ीक़त में सुन्दर है उसकी तो कहीं चर्चा ही नही है। जिसका एक बेहतरीन उदाहरण सिंगरैला की कहानी है क्योंकि जो सुन्दर दिख रहे है उन्होंने कभी भूखे रहने का स्वाद नहीं चखा, कभी ग़रीबी नहीं देखी और इसी वजह से ही उनकी सुन्दरता उनकी परेशानियों में छिप गयी है इसलिए लोग उनकी सुन्दरता को नहीं देख पा रहे है और जिसकी सुन्दरता को वह देख रहे है वह दौलत के लिबास की सुन्दरता है न कि उनकी अपनी। इसी वजह से ही लोग धोखा खा जाते है जिसके विषय में जाॅन बहुत ही सरल शब्दों मे बता रहे है कि नज़र ऐसी हो जो वास्तविकता को देखने की क्षमता रखती हो न कि दिखावे को देखकर उस पर फ़िदा हो जाए।

Saturday, March 4, 2017

शोले का क़ीमती सवाल

हिन्दी सिनेमा के इतिहास की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों पर जब कभी भी बात की जाएगी तो तमाम फ़िल्मों के साथ सन् 1975 में आई 'रमेश सिप्पी की शोले' का नाम ज़रूर आएगा क्योंकि शोले के अभाव में तो हिन्दी सिनेमा के इतिहास पर बात हो ही नहीं सकती। इस फ़िल्म में मनोरंजन के ऐसे शानदार आयाम है कि आज भी लोग इसे बहुत ही चाॅव के साथ देखते है फिर चाहे वह बंसती रूपी, सुरमा भोपाली रूपी, जेलर रूपी या फिर वीरू रूपी चंचलता हो या राधा, रामलाल या फिर जय जैसी गंभीरता हो और प्रतिशोध की आग चाहे गब्बर जैसी हो या ठाकुर ऐसी आदि पात्र शोले को हिन्दी सिनेमा मे एक महान् कृति बना देते है। बात यदि शोले की कहानी पर की जाए तो इसकी बहुत ही साधारण है यह एक रेवेन्ज स्टोरी है जिसमे एक पूर्व पुलिस इंसपेक्टर ठाकुर बलदेव सिंह एक ख़तरनाक डाकू गब्बर सिंह को ज़िन्दा पकड़वाकर उससे बदला लेना चाहता है। अपने मक़सद को पूरा करने के लिए वह जय-वीरू नाम के दो चोर-बदमाशों का इस्तेमाल करता है क्योंकि एक बार ठाकुर ट्रेन में उनकी वीरता और उनके अन्दर छुपी हुई इन्सानियत को देख चुका था। कहानी इतनी ही है और चूंकि शोले एक फ़ीचर फ़िल्म है जिसका काम दर्शको का मनोरंजन करना है तो उसमे कुछ अन्य चीज़े भी शामिल की गयी जैसे जय, अनवर की मौत , वीरू के ड्रामें,गाने आदि लेकिन इस मनोरंजक फ़िल्म ने सोसायटी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल छोड़ा। सवाल यह है कि ठाकुर बलदेव सिंह जो कि अपने दौर में एक बहादुर, ईमानदाए पूर्व पुलिस इंस्पेक्टर रह चुका है उसने अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए जय और वीरू को ही इस क़ाबिल क्यों समझा? जबकि ठाकुर साहब यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते है कि वह दोनों चोर-बदमाश है और पुलिस एंव बदमाशो का हाल कृष्ण और कंस जैसा है फिर भी ठाकुर साहब ने जय-वीरू को चुना। पूर्व पुलिस इंस्पेक्टर ठाकुर बलदेव सिंह का यह फ़ैसला इस बात का पक्का सबूत है कि ठाकुर को यह बहुत अच्छी तरह से पता है कि पुलिस उनके किसी काम नहीं आ सकती। एक और नज़रिये से देखा जाए तो शोलेे ने सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है कि जो पुलिस अपने ही एक आदमी की सहायता नहीं कर सकती वह दूसरों की मदद कैसे करेगी? यदि पुलिस अपनी ज़िम्मेदारियों का सही से निर्वाह करती तो क्या ठाकुर जय-वीरू का इस्तेमाल करते! इससे हटकर बात यदि आज के दौर की पुलिस व्यवस्था पर की जाए तो कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है और इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्दालय के उस छात्र का न मिलना है जिसे पुलिस तीन महीनों से भी अधिक वक़्त से ढूंढ रही है। इसके विपरीत एक और ताज्जुबख़ेज़ घटना सामने आती है कि देश की एक प्रतिष्ठित जेल से अपराधी फ़रार होते है और पुलिस कुछ ही घंटो में उन्हें ढूंढकर उनका एनकाउंटर भी कर देती है पता नहीं यहाँ पर पुलिस कैसे इतना अच्छा प्रदर्शन कर देती है और दूसरी जगह उसे तीन महीनों की मेहनत के बाद भी सफ़लता नहीं मिल रही है। अब जब ऐसी घटनाए सोसायटी सामने आएंगी तो पुलिस व्यवस्था पर सवाल उठना तो वाजिब हो ही जाएगा। बसंती के शब्दो में समझने वाली बात यह है कि शोले ने 1975ईसवी में ही पुलिस की हालत को समाज के सामने रख दिया था कि जब उस वक़्त पुलिस ऐसी थी तो आज अगर उसकी कार्यशैली पर सवाल उठ रहें है तो कौन सी बड़ी बात है क्योंकि दिखता तो यही है कि पुलिस सिर्फ़ कमज़ोर लोगो से बहुत चढ़ कर बात करती है और कोई उससे इक्किस पड़ गया तो पीछे गाली और सामने सर-सर के अलावा कुछ नहीं करती। इसके साथ सत्ता पक्ष पर तो बहुत अधिक महरबान रहती है। यही प्रमुख वजह है जिससे आज भी लोगो की नज़रो में पुलिस की वह अाहमियत नहीं है जो हक़ीक़त में होनी चाहिए क्योंकि क़ानूनन एंव पुलिस समाज की रक्षा के लिए ही होते है जिसे जनता ने देश के अन्दर तैनात किया है ठीक उसी प्रकार जैसे जनता ने सरहद पर अपनी और देश की हिफ़ाज़त के लिए सेना को नियुक्त किया है। अब जनता को उस दिन की प्रतीक्षा है जब सेना की तरह पुलिस भी ज़िम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेगी और पुलिस का डर आम लोगो की जगह अपराधियों के हीे मन में रहेगा वरना जनता के पास वीरू की तरह टंकी पर चढ़ने या ठाकुर की तरह बदला लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचेगा जिस पर कम से कम विचार तो होना ही चाहिए।