Tuesday, May 24, 2016

नायक माने हीरो और आइकन

अक्सर ऐसा माना जाता है कि बच्चों को अच्छे और बुरे का ज्ञान नहीं होता लेकिन फिर भी बचपन में बच्चे क्रिश, शक्तिमान, हातिम, कैप्टन अमेरिका, आयरन मैन, सुपरमैन, कर्मा, मोटू-पतलू, जूनियर-जी, मिस्टर इण्डिया और हैरी पाॅटर जैसे चरित्रों को पसन्द करते हैं न कि काल, वोल्डोमार्ट, डा.जयकाल, तमराज किलविष, अल्ट्राॅन, लोकी और मोगैम्बो जैसे कैरेक्टर्स को क्योंकि बचपन से ही हमारी लाइफ़ में कुछ ऐसे ख़ास बिम्बों का निर्माण होता है जो हमे अच्छे और बुरे के बीच की खाई के फ़र्क़ को समझाने में मदद करते हैं। इन्ही बिम्बों के कारण बच्चे शक्तिमान को अपना हीरो मानते हैं न कि तमराज किलविष को। फिर भी न जाने क्यों माता-पिता यही मानते हैं कि बच्चों को सही-ग़लत की समझ नहीं होती क्योंकि टेलीविज़न पर तो वह अपना आईकन हैरी पाॅटर को मानते है लेकिन रियल लाइफ़ में बच्चों का आइकन मोहल्ले का वह लड़का होता है जो आम भाषा में उस एरिये का डाॅन कहलाता है। यही मुख्य कारण मां-बाप को यह समझने पर मजबूर कर देता है कि बच्चों को सही-ग़लत का अन्तर नही मालूम है क्योंकि इस समय उनके सपने होते है कि उनका बच्चा डाॅन को नहीं बल्कि 'कलाम साहब' और उनके ऐसे व्यक्तित्व के लोगो को अपना हीरो माने और बड़ा होकर अच्छे गुणों से उनका नाम रोशन करे।

जैसे-जैसे वह बालक अपनी उम्र के पड़ावों को तय करता जाता है ठीक वैसे-वैसे उसके आइकन में बदलाव आने शुरु हो जाते हैं क्योंकि उम्र के पड़ाव उसकी समझ का विकास करते हैं। फिर जब वह उससे भी मज़बूत व्यक्ति से मिलता है खासतौर से परिवार से अलग वह शक़्स जो बालक को प्यार के साथ रुपये भी देता है तो कुछ समय के लिए बच्चा उस पर फ़िदा हो जाता है। इसी प्रकार उसकी पसन्द बदलती रहती है या कहना अनुचित न होगा कि उसके आइकन बदलते रहते हैं और जब वह आइकन के सिद्धान्त को समझ जाता है तो वह दूसरो में भी इसकी समझ विकसित करने की कोशिश करता है।

इस पूरी प्रक्रिया में सारा खेल 'आइकन' के ही इर्द-गिर्द चलता है लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस ओर गया हो कि  यह आइकन है क्या? इसी आइकन को आम भाषा में हीरो कहा जाता है।इस हीरो को सिनेमा और साहित्य में 'नायक' की संज्ञा दी गई है।नायक उस कड़ी का नाम है जिसके आस-पास कहानी मंडराती है एवं उसके पास ढेर सारी मोहब्बत, हमदर्दी और भावनाओं का ख़ज़ाना होता है जिसका उदाहरण है प्रेमचन्द की 'ईदगाह' और 'पूस की रात' फिल्म शोले और मुग़ले-ए-आज़म जिसमे हामिद, हल्कू, जय-वीरू, ठाकुर, सलीम और अनारकली के साथ इन चीज़ो का अम्बार लग जाता है और यहाँ तक कि जो लोग ज़्यादा इमोश्नल होते है वह नायक का दर्द महसूस कर रोने भी लगते हैं। इसी वजह से बच्चों के साथ सभी को हीरो यानी नायक ही पसन्द आता है क्योंकि नायक रोशनी, अच्छाई और सच्चाई का प्रतीक होता है और यही प्रतीक हमारी समझ का दायरा विकसित करने की बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी है क्योंकि इस प्रतीक की मेहरबानी से ही हम सही और ग़लत नाम की दो मंजिलों में से एक को अपनी मंजिल बनाते हैं। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम नायक से प्रभावित होते हैं या खलनायक से और कौन सी मंज़िल की ओर चलते हैं?

Saturday, May 21, 2016

रेड इंक के सवाल

ऐसा सोचा और माना जाता है कि फ़ीचर फ़िल्में ही समाज से संवाद करती हैं लेकिन शार्ट फिल्म्स भी कहीं पर से फ़ीचर फ़िल्मों से कम नहीं है क्योंकि जो बात फ़ीचर फ़िल्मे घण्टों में करती हैं वही बात शार्ट फ़िल्म्स मिनटों में कर लेती हैं। इसी बात का ज़बरदस्त उदाहरण 'द मिस्ड क्लास, ट्यूब लाइट का चाँद, द क्रश, सत्यजीत राॅय की 'टू' और मार्टिन स्काॅरसेस की 'द बिग शेव' जैसी फ़िल्मे है। यह ज़िन्दगी की कहानी को बहुत ही कम समय मे उस तरह पेश करती है जैसी ज़िन्दगी होती है। शार्ट फ़िल्म्स की इसी श्रेणी में संजीव त्रिगुणायत की 'रेड इंक द ट्रुथ' भी एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण नाम है जो एक ऐसी घटना पर बनी है जिस घटना के बारे मे लोग सोचने से भी डर जाते हैं।

रेड इंक एक लड़की रोशनी की कहानी है जिसके भाई का अपहरण हो जाता है और उसके लिए उसे एक पुलिस काॅन्सटेबिल एक मंत्री के पास ले जाता है जहाँ पर वो उस मंत्री की हवस का शिकार होती है और जब वह इसकी कम्पलेन्ट करना चाहती है तो उसकी शिकायत दर्ज नही होती, न मेडिकल होता है और न ही अख़बार वाले उसकी बात मानते है। जब कहीं पर भी उसकी बात नही सुनी जाती तो विशाल जो एक स्वतंत्र पत्रकार है वह उसकी बात सोशल मीडिया के माध्यम से समाज के समाने रखता है और इस मदद के लिए विशाल को ज़िन्दा जलवा दिया जाता है। बाद में रोशनी विशाल पर ही इल्ज़ाम लगा देती है इसके साथ एक और वीडियो सामने आता है और मंत्री की हँसी के साथ फ़िल्म ख़त्म हो जाती है। कहने को तो यह बहुत आम सी बात है लेकिन संजीव त्रिगुणायत की फ़िल्म की कहानी और दृश्य बहुत ख़ूबसूरती और कलात्मकता के साथ समाज से यह पूछते है कि जब लड़की के भाई का अपहरण हुआ तो लड़की पुलिस स्टेशन क्यों नही गई? बल्कि एक कान्सटेबिल ही उसे मंत्री के पास ले जाता है यहाँ पर यह बात साफ हो रही है कि कान्सटेबिल को खुद यक़ीन है कि पुलिस कुछ काम नही कर सकती और यह बात साबित तब होती है जब लड़की पुलिस स्टेशन जाती है और उसकी शिकायत दर्ज नहीं की जाती।

कहानी के साथ फ़िल्म के संवाद भी बहुत जीवंत है जैसे "तुम्हारे ऐसे पत्रकार हमारे तलवे चाटते हैं हमसे विज्ञापन की भीख मांगते हैं", "मै उन पत्रकारों मे से नहीं हूँ जो आपके तलवे चाटते हैं" यह संवाद समाज को बता रहा है कि मीडिया जो कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है उसकी क्या औक़ात है? साथ में बिकने से वह पत्रकार मना कर रहा है जिसे मुख्य मीडिया के पत्रकार पत्रकार ही नही मानते क्योंकि वह किसी न्यूज़ चैनल या अख़बार का नहीं बल्कि सोशल मीडिया का पत्रकार है। यहाँ पर फ़िल्म निर्देशक ने कला के साथ कई बातों को बताया है  जैसे कि सोशल मीडिया जिसे बहुत से लोग अथेन्टिक भी नहीं मानते उसका महत्व कितना ज़्यादा है और अन्तिम वीडियो भी सोशल मीडिया पर ही अपलोड होता है जो विशाल की सच्चाई सामने लाने का प्रयास करता है और समाज किन लोगो को अपना नेता चुनता है और पत्रकारो, डाक्टर्स और पुलिस आदि को नेता कैसे खरीद लेते हैं और जो नही बिकते उनका हाल क्या होता है? यह हमारी सो काल्ड सभ्य सोसायटी के ऊपर बहुत बड़ा सवाल है जिसके बारे मे संजीव त्रिगुणायत सोचने पर विवश कर रहे हैं और हमे इन जैसे सभी विषयों के बारे ज़रूर सोचना और कुछ करना चाहिए।