Monday, February 4, 2019

उंगलियो का सफ़र

उर्दू शायरी के बेहतरीन शायरों मे से एक डा.राहत इन्दौरी अक्सर ये बात कहते है कि एक अच्छा शेअर कहने मे कभी-कभी दस महीने या उससे भी ज़्यादा वक़्त लग जाता है क्योंकि कोई भी अच्छा और गहरा शेअर इतनी आसानी से ज़हन मे नहीं आ पाता। अच्छे शेअर की यही ख़ासियत है कि वह दिलों मे बस जाए और जो मज़ा पूरी किताब पढ़ कर आए वह मज़ा अकेले एक शेअर ही दे दे जैसे उर्दू शायरी के महानतम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को मोमिन खाँ मोमिन का यह शेअर
                  तुम मेरे पास होते हो गोया
                  जब कोई दूसरा नहीं होता

इतना पसन्द आया कि ग़ालिब अपना पूरा दीवान इस शेअर के बदले दिये दे रहे थे। जब कभी इसी तरह के बेहतरीन शेअरों की सूची बनेगी तो उस लिस्ट में "शमीम शाहजहाँपुरी" के इस शेअर का एक अलग ही मुक़ाम होगा क्योंकि यह शेअर जब "सज्जाद ज़हीर" के सामने पहुचा था तो सज्जाद ज़हीर ने अपनी ख़ास डायरी में इस शेअर को दर्ज कर लिया। शमीम शाहजहाँपुरी के इस शेअर

" मै कि अल्फ़ाज़ की वादियों का ख़ुदा क़र्नहाक़र्न शोअलों में जलता रहा,
पत्थरों, काग़ज़ों, पेड़ की छाल पर ख़ून रोती रही हैं मेरी उंगलियाँ "

ने उंगलियों के  सफ़र को बहुत ख़ूबसूरती के साथ बयान करता है कि कैसे उंगलियों ने एक कभी न ख़्त्म होने वाली यात्रा तय करके विश्व के बेशुमार ज्ञान को हम तक पहुचाने का काम किया है। इन उंगलियों के ही दम से हमने साहित्य को समझा और जाना है।
जिन उंगलियों ने इस ज्ञान के ख़ज़ाने को समाज तक पहुचाया क्या उन उंगलियो को इस समाज से कुछ मिला? इसी बात की तरफ़ शमीम शाहजहाँपुरी अपने इस शेअर के ज़रिए इशारा कर रहे है कि यह ज्ञान का सफ़र जो गुफ़ाओ से शुरु होकर आज इंटरनेट तक पहुच गया है जो हर विषय को समाज तक पहुचाने का काम कर रहा है और समाज ने हर क्षेत्र मे बहुत ज़्यादा उन्नती कर ली है क्या उन उंगलियों ने भी वही उन्नती की है? जीते जी क्या क़लम के जादूगरो को वह इज़्ज़त मिली जिसके वह सभी, सही मायने मे हक़दार थे? इस बात का ज़बरदस्त उदाहरण गुरु दत्त की फ़िल्म प्यासा का वह दृश्य है जिसमे समाज को लगता है कि शायर मर चुका है और मरने के बाद समाज उसे कितना अधिक महान बना देता है जबकि वह शायर ज़िन्दा होता है और उसके जीते जी उसके भाई भी उसे पहचानने से साफ़ इंकार कर देते है। उसके मरने के बाद उससे ऐसा रिश्ता और मोहब्बत का बखान किया जाता है जैसे उन्हें सबसे ज़्यादा मोहब्बत उसी से हो और इस दिखावे का एक और उदाहरण फ़िल्म बाग़बान है कि जब तक पिता के पास पैसे नहीं होते है तब तक उनकी इज़्ज़त नहीं होती बल्कि उन्हें एक बोझ समझा जाता है और जैसे ही पैसे आते है वैसे ही दुनिया भर की मोहब्बत का दिखावा और  दोहरा एख़लाक शुरु हो जाता है। शमीम शाहजहाँपुरी का यह शेअर समाज के इस व्यवहार को बता रहा है कि किस प्रकार समाज दोहरा रवैइया और दिखावा करने में महारथ रखता है।
यह शेअर बता रहा है कि इन उंगलियों ने समाज को बहुत कुछ दिया लेकिन समाज ने उंगलियों को कुछ नहीं दिया और यह हाल सभी का है कि आप किसी के लिए कुछ भी कर दो हर आदमी डंक मारने के लिए तैयार बैठा है।

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